पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/११७

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जिनसे लोगो का स्वार्थ अधिक सिद्ध होता है उसी देवता के मंदिर अधिक बनाए जाते हैं । आजकल की दुनिया परले सिर की स्वार्थी हैं। यह ठहर बूढ़े बाबा । जैसा जिसका कर्म हुआ वैसी उसकी प्रतिमा गढ़ डाली । हां इनसे भी स्वार्थ सिद्ध होते हैं किंतु हजार बर्ष तप करने पर। और आजकल लोगोंगे को धी खाने ही शरीर चिकना होना चाहिए । बस यही सबव है कि जैसे दुनियादारी में पढ़ते ही लोग माता पिता को भूल जाते हैं वैसे ही इनकी गोद में से निकलने के बाद इन्हें याद नहीं करते ?"

खैर ! इस' तरह धर्मचर्चा करते करते पहाड़ी चढ़कर जब यह पार्टी गायत्री जी के मंदिर में पहुँची तब पंडित जी ने भगवती के चरणारबिंद में मस्तक नवाकर एकाअचित से निस्तब्ध होकर माता की इस प्रकार स्तुति की----

"हे जगजननी ! हे जगदंबा, तुम्हारी क्या स्तुति करू ?मुझे अभागे, धन के दरिद्री, मन के दरिद्री, तन के दरिद्रों और चरित्र के दरिद्री पामर पशु की क्या सामर्थ्य जो आपकी स्तुति कर सकें ? जिसकी प्रशंसा करते करते ब्रह्मादिक देवता भी नहीं अबाते , जिसे जपते जपते एक कीटनुकीट से ब्रह्मर्षि और देवर्षि बन जाते हैं जिसका जप करनेवाले के लिये त्रिलोकी का राज्य भी सिनके के समान है उसकी स्तुति क्या ? और सो भी मुझ जैसा अकिंचन, तुच्छ करे ! तेरी स्तुति करना मेरे लिये धरती पर पड़े पड़े आकाशवर्ती चंद्रमा को पकड़ना है, छोटे मुँह बड़ी बात है। जे भगवान् की आदि शक्ति हैं,जो