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प्रकरण--५७
घुरहू की कुकर्म कहानी
"ये चित्त चित्तय चिर चरणी मुरारे:
पारं गमिष्यति यतो भव सागरस्य ।
पुत्रा: कलत्रमितरे नहि ते सहारया:
सर्व विलांकय सखे मृगतृणकाभिम् ।। १ ।।

अहह जन्म गतं च वृथा मम न यजनं भजनं च कृतं हरो ।।

न गुरुपाक्षसरारुहपूजन प्रति दिनं जठरश्य विपोषम ।। २ ।।

“स्वस्ति श्री सकलदुपमाह्र, भगवद्भक्ति-परायण, पाणिड - त्यायनेकगुण-मंडित, पंडित-मंडली-भूषण, श्रीमत्प्रीतिपन्न, श्रद्धेय पंडित श्री ५ प्रियानाथ जी महाशय योग्य ब्रह्मरूप निकट वर्तिनी, भगवान् शंकरप्रिया वाराणसी से कीटानुकीट, अकिंचन दीनबंधु का प्रयामाशीद ! शं च । जब से अपने गया श्रद्धादि का सविधि संपादन कर भगवचरण सरोरुह के दर्शनों से अपने नेत्रों को सफल और सुफल करने के लिये श्रा जगद्दीशपुरी के प्रस्थान किया आपका मंगल संवाद प्राप्त नहीं हुआ । निश्चय नहीं है कि आप वहाँ कब तक निवास करेंगे और दक्षिण यात्रा का आपने किस प्रकार क्रम स्थिर किया है। अस्तु ! कितनी ही आवश्यक बाते ऐसी हैं