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जनानी गाड़ी में और दूसरी बार प्रयाग स्टेशन पर उसे छोड़कर हँस देनेवाला भी हैं ही हूँ।

‘आपको शायद विश्वास न होगा कि जब प्रियंवदा ने इतने दिन मातृभाव से मेरी सेवा की थी तब उसने मुझे रेल- गाड़ी में, प्रयाग स्टेशन पर और अंत में नौका में पहचाना क्यों नहीं ? इसमें उस बिचारी का कुछ दोष नहीं । वह तो वह किंतु यदि मैं भेप बदल लू तो मेरे माता पिता, मेरी स्त्री और देवता तक मुझे नहीं पहचान सकते । मैं केवल भेष ही नहीं बदलता हूँ किंतु भाव बदलने का, आकृति बदलने का और वोली बदलने का मुझे अच्छा अभ्यास है । मैंने इस काम के लिये सामान इकट्ठा करने में हजारों रूपए फूंक डाले हैं, बड़े बड़े उस्तादों की ठोकरें खाई हैं। इससे आप समभ सकते हैं कि प्रियंवदा के बचपन में जब मैं उससे इसके मौके पर मिला करता था तब और था, प्लेग के संकट से जिस समय उसने मेरे प्राण बचाए तब और, रेल में मैंने जब उससे छोड़ छाड़ की तब और नाव में मैं दिखलाई दिया तब और, किंतु जब मैं पकड़ा गया तब उसने मुझे पहचान लिया था ।

'रेल-यात्रा में जब वह मेरी मीठी मीठी बातों से काबू में आती दिखलाई न ही तब अवश्य मैंने उसे बचपन की झलक दिखला दी थी । उसके हँस कर, रोते रोते मुसकुराकर “निपूत यहाँ भी आ मरा । कह देने का भी यही कारण था । आप शायद पूछेगे कि बचपन की ऐसी कौन सी बात