पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(११६)

सिवाय पढ़ने वाले से कुछ मतलब नहीं था। बुरी संगत में बैठने से मेरी नियत खराब हो गई थी और उसी कच्ची उम्र में चाहने लगा था कि मैं प्रियंवदा को अपनी प्राणत्यारी । बताऊँ ! परंतु जाति-भेद के कारण, और मेरे दुराचार से यह बात एकदम असंभव थी। बस इसी लिये उस कच्ची कोपल को ही हो तोड़ खाने का इरादा किया । इस इरादे से मैं उसे छेड़ा करता था, उसके साथ' बुरी बुरी चेष्टाए करता था और बुरे बुरे प्रस्ताव करता था परंतु वह केवल सात आठ वर्ष की बालिका क्या जाने कि मेरा क्या मतलब हैं । आजकल सात आठ वर्ष की लड़कियाँ भी खोटी संगति में रहकर सुनने सुनाने से, देखने भालने से बहुत कुछ जान जाती हैं और गालियों का पाठ पढ़ाकर अपड़ स्त्रियाँ उन्हें सब बातों में पहले से होशियार कर देती हैं किंतु उस तक इसकी हवा भी नहीं पहुँची थी । जब मैं उसे छेड़ता तो वह अपने भोलेपन से या तेरे हँस दिया करती थी या बहुत हुआ तो निपूते,निगोड़े और झुए गाली देकर, पत्थर मारकर भाग जाती थी। किंतु ऐसे गाली और पत्थर खाने ही में मुझे आनंद था।

“हाँ !"तो भोरी में के बेर" की घटना इस तरह पर हुई कि एक दिन उसके पिता ने पेंसिलें खरीदने के लिये उसे पैसा दिया । बालिका तो थी ही, पैसे के आँचल से बाँधने की जगह वह उसे उछालती उछाल ती जाने लगी । पैसा संयोग