पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१३

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छुटकारा कर दे किंतु यह सामर्थ्य ईश्वर के बिना किसी में नहीं। खैर ! इन्होंने पाप किया हैं और ये दंड भोगते हैं और सो भी भगवान् की ड्योढ़ी पर पड़े पड़े भोगते हैं तो किसी ना किसी दिन इस दयासागर इन पर अवश्य दया होगी किंतु जब तक अपने कुकर्मों का दंड भोगने के लिए ये जीते हैं तब तक के लिए ऐट तो नहीं मानता। दुख पाकर मरा भी तो नहीं जाता! क्या भारतवर्ष में ऐसा कोई भी माई का लाल नहीं जो इसके लिए खाने पहनने और मरहम पट्टी का बंदोबस्त करके इन्हें छाया के स्थान पर नगर से अलग रख सके। साल भर में यहां लाखों यात्रियों का आगमन होता है, उनमें हजारों ही धनवान आते परंतु कोई इसकी सुख लेनेवाला नहीं। सूर्योदय से सूर्यास्त तक यहां, मयंक के दोनों किनारों पर कनारबांधे पड़े रहना,यात्रियों के दिए हुए चनों के दान दाने को इकट्ठा करके पेट भर लेना और चाहे वर्षों हो, चाहे सर्दी हो और चाहे गर्मी हो यही पेड़ों की छाया में निवास। इससे बढ़कर यातना क्या होगी? घोर कष्ट है वेदना की परिसीमा है।"

इस तरह कह कहकर आंसू बहाते बहाते पंडितयिन के इशारे से पंडितजी ने बाजार से पृड़ियां मंगावाई और जितने कोढी वहां थे उन्हें खिलाकर तब वह आगे बढ़े। ऐसे केबल पूड़िया बाटकर ही यह चल दिए हो सो नहीं। दफ्ती की घृणा उस समय बिल्कुल कफूर हो गई। साथियों ने बहुतेरा उन्हें समझाया,रोका,यहां तक कह दिया कि