पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१२७)

नाथ की कली कली खिल उठती है। रोकतें रोकते वे मुसकुरा भी उठते हैं परंतु प्रियंवदा से चार नजरें होते ही शर्माकर भाग जाते हैं और यदि विनोद में विनोद बढ़ाने के लिये हँसकर उसने बुलाया भी तो "भाभी तुम भी लड़के से हँसी करती हो ! तुम माता के बराबर हो ! तुम्हें ऐसी हँसी शोभा नहीं देती।" कहकर आंखे’ झुका लेते हैं। बस इस तरह की लज्जा से हिंदू गृहस्थ का आनंद है, इसमें भले घर की शोभा है। कुछ इससे बड़ाई नहीं कि धड़ो के सामने, “बेटा, मुन्ना, लाला, रज्जा !" कद्दकर बालक के गालों का चुंबन करें, पति पत्नी हँस हँसकर आपस में बात करें

"खैर ! प्रियंवदा एक साथ दो दो बालकों को निरखकर यदि आनंद में, सुख में मग्र है, यदि वह फूले अंग नहीं सभाती है तो अच्छी बात है। भगवान् ने उसे अतीव अनुग्रह करके वर्षों तक राह तकते तकते ऐसा सुख प्रदान किया है और वह उसका उपयोग करती है किंतु इससे यह न समझना चाहिए कि पह पतिसेवा से उदासीन हो गई है। लोग कहते हैं कि प्रेम में द्विधा विष रूप होती है। परन्तु दोनों प्रेमपात्रों के प्रेम ही दो भिन्न प्रकार के हो तब द्विधा कैसी ! फिर "आत्या वै जायते पुत्र" इन सिद्धांत से जब वह प्यारे पुत्र की चाल ढाल में, रहन सहन में, बोल चाल में और सूरत शकल में स्वामी की छाया देख रही है तब कहना पड़ेगा कि परमेश्वर के अवतार की जैसे छाया अंतःकरण की दूरवीन से