पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१३८

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अंतःकरण में न राग के लिये स्थान है और न द्वेष की वहाँ तक गुजर है । जब वह अपने कर्तव्यपालन में पके पंडित हैं तब कोई उनके बर्ताव के देखकर नहीं कह सकता कि वह कच्चे दुनियादार हैं किंतु यदि किसी के पास किसी का मन परखने का कोई आला हो, यदि "एक्स रे" जैसे पदार्थ की सृष्टि से शरीर के भीतरी भाग की तरह मन का निरीक्षण करने की किसी को सामर्थ्य हो तो वह कह सके कि ऊनका अंत:करण इन बाते से बिलकुल कोरा है। उसमें भगवान की भक्ति, प्रभु के चरणारविंदे से प्रेम ओतप्रोत, लबालब भरा हुआ है और कहना चाहिए कि जिस मनुष्य में यह बात हो, ऐसी अलैकिक अनिर्वचनीय अखंड संपदा जिसे प्राप्त हो वह सचमुच ही जीवन्मुक्त हैं, उनके लिये वानप्रस्थ आश्रम की आवश्यकता नहीं, उसके लिये संन्यास कोई पदार्थ नहीं ।

लोकाचार में पड़े रहने से यदि किसी को इस बात की थाइ मिल जाय' तो उनके इस ब्रह्मसुख्य में विन्न उपस्थित हो इसलिये वह अपने मन के भावों को गुप्त रखते हैं। काशी, प्रयाग, मथुरा और पुरी तथा गया की भाँति उनके भक्तिरसामृत का प्याला किनारे तक, सीक उतार भरा रहने से कभी कभी झलक भी उठता है और जब झलक उठता है तब लोग उनके न परखकर उन्हें पागल भी समझ बैठते हैं, किंतु उन्हें इन बातों से कुछ मतलब नहीं । वह इधर दुनियादारी में खूब रंगे हुए हैं और उधर प्रेम सरोवर में

आ हिं०-६