पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१४

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यह रोग लड़कर लग जाता है किंतु उन्होंने कुछ परवाह नहीं की। दोनों के दोनों ने उनमें से जिसकी शक्ति नहीं थी,जो असमर्थ थे अथवा जो अपने हाथ से अपना काम नहीं कर सकते थे उनके बीच से भरें घाव अपने हाथों से धोएं: बाजार से नया कपड़ा मंगा कर उनके पटिया बांधों और तब भार्कखेय कुंड में जाकर स्नान किया। वहां के कार्य से निवृत होकर जब इन्होंने भी जगदीश के मंदिर में प्रवेश किया तब बड़ी में ठीक "टन टन" चार बजे थे। दर्शन खुलने ही वाले थे। रथयात्रा का उत्सव न होने पर भी, और किसी तरह का व्यावहार ना होने पर भी यात्रियों के भीड़ के मारे, जजिया लोगों के टठृ के मारे कोहनिया सिली जाती थी, पैर कुचले जाते थे, और पूरी निवासी भड़ियों के शरीर में की तेल या मछली की गंध के मारे सिर भिक्षाया जाता था। जिनका दिमाग गुलाब, जूही, मोगरा चमेली के इत्रों से सदा वामा रहता हो उनकी तो कथा ही क्या? उन्हें तो शायद उसी समय चक्कर आकर वमन हो जाए तो कुछ आश्चर्य नहीं किंतु जो साधारण स्थिति के मनुष्य है उनका भी जी घबराता था। खैर! वे लोग आकुलाते हैं तो अकुललाने दीजिए किंतु इस समय दर्शनों की आशा में सब के सब मग्न हो रहे हैं, राजा रंक का अमीर गरीब का,भले बुरे का ऑल स्त्री पुरुष का जो भिन भाव था वह यहां बिल्कुल नहीं। यदि ब्राह्मण है तो क्या,