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प्रकरण----५९
ब्राह्मणों की जीविका

“अभी तो आपके यहाँ आए जुम्मा जुम्मा आठ ही दिन हुए हैं ! अभी से उतावले ?" "आठ दिन क्या थोड़े हैं ? मुझे तो आठ दिन आठ युग के बराबर बीत गए । खालो बैठे दिन पहाड़ के समान व्यतीत होता हैं। फिर जिस आदमी का घर नहीं, बार नहीं, जारू नहीं, जाता नहीं, पैसा नहीं, कौड़ी नहीं---उसका विश्राम ही क्या ? और कार ही क्या ? "जहाँ पड़ा मूसल वहीं खेम क्रूसल" नित्य कमाना और नित्य खाना ।”

“नहीं महाराज ! आपको कुछ भी क्यों नहीं ? सब कुछ है । यह घर आपका है, हम सब आपके हैं, आप बड़े हैं, पूज्य हैं, मुरब्बा हैं । आप बड़े भाई के समान हैं, उनसे भी बढ़कर फिर ऐसा नहीं हो सकता कि हम आपको यहाँ से जाने दें। घर ठाकुर जी का है, हमारा क्या है ? जैसे अाप वैसे हम ।"

"सचमुच आपका स्नेह अद्वितीय है। मैं भी आपको छोड़कर नहीं जाना चाहता। दुनिया में मेरा है ही कौन जिसके पास जाकर माथा मारूं ? नसीब से कहीं सिर भी दुखने लगे तो कोई पानी पिलानेवाला नहीं । शरीर छूट जाय तो उठाकर जला देनेवाला नहीं ! पड़ा पड़ा सड़ा करू