पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१४२

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प्रथम तो हिंदुओं के दुर्भाग्य से अब इससे श्रद्धा ही उठती जाती है फिर जो कुछ, थोड़ो बहुत, बची बचाई है भी उसे मूर्ख ब्राह्मणों का दल नष्ट कर रहा है ।"

“बेशक आप ठीक कहते हैं। अब केवल इस पर आधार रखना अच्छा नहीं । संस्कृत अवश्य पढ़नी चाहिए, कर्मकांड में अच्छी योग्यता प्राप्त करनी चाहिए और जो भावुक यजमान मिल जाय तो उसे करना भी चाहिए। किंतु कर्मकांड सीखना अपना पेट भरने के लिये नहीं है । वेदादि शास्त्र पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, कराना और दान देना, लेना ब्राह्मों के ये छः कर्म हैं । वेद पढ़ना, यज्ञ करना और न देना केवल अपने कल्याण के लिये और वेद पढ़ाना, यज्ञ कराना और दान लेना उपजीविका के लिये है। मेरी समझ में अपने कल्याण के लिये तीनों कमें तो करने ही चाहिएँ । इनके बिना ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं, किंतु जीविका के लिये जिन कम की विधि है यदि उन्हें कम कर दिया जाय, रोक दिया जाय तो फिर भी ब्राह्मणों का पहले का सा आदर हो सकता है। जो वस्तु दुर्भित है, अधिक परिश्रम से मिल सकती है। उसका आदर अधिक होता है। हमारे प्राचीन ऋषि महर्षियों की पर्णकुटिया पर बड़े बड़े राजा महाराजा महीने तक जा जाकर जय टकराते थे, खुशामद करते थे तब कहीं मुशकिल से वे लोग यज्ञ कराना, दान लेना स्वीकार करते थे। पितामह ब्रह्मा के समझाने पर महर्षि वशिष्ठजी ने सूर्यवंश की पुरेहि