पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१५१

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सफलता में संदेह भी नहीं किंतु महाराज, प्राचीन संस्कृत ग्रंथ मिलते ही कहाँ हैं ? दुष्टों ने उन्हें जला जलाकर हम्माम गर्म कर डाला । सच पूछो तो जितनी हानि पुस्तक जला देने से हुई, हमारी क्या दुनिया की हुई, वह कभी मिटने की नहीं। रुपए इकट्टे हो सकते हैं परंतु पुरत नहीं ।”

"हाँ ! ( रोकर ) हाय ! वास्तव में बड़ा अंतर अनर्थ हो गया। परंतु जो बात निरुपाय है उसका दुःख ही क्या ? अब भी जितने ग्रंथ मिल सकते हैं उनका उद्धार करने से आँसू पुछ सकते हैं। परंतु महाराज अंत में मैं फिर कहूँगा कि जिनके लिये विद्या से जीविका चलाना कठिन है वे व्यापार करके, कारीगरी सीखकर और नौकरी करके अपना पेट पाल लें । ब्राह्राण होकर जूते बनावें और शराब की दुकाने' खोले, ऐसी बाते' अवश्य निंदनीय हैं किंतु जो लोग आत्रिों से, कुपात्रों से पैसा माँगकर ब्राह्मगुत्व का अनादर करवाते हैं उनसे मैं संध्यावंदनादि में निपुणु पाँच रुपए की भैयागरी, चपरासगरी और दरबानी करनेवाले का श्रेष्ठ समझता हूँ। मेरी समझ में देशोपकार की लंबी लंबी ढीगे हाँकनेवाले भ्रष्ट ब्राह्मणों से वे हजार दर्जे अच्छे हैं। संताप मात्र चाहिए क्योंकि ‘असंतुष्ट द्विजा नष्टाः ।"

बस लेखक की कल्पना ने इस उद्योग की सफलता को सीमा तक पहुँचा दिया । अब कार्य में प्रवृत्त होना पाठकों का काम है।