पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१६६

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की अच्छी योग्यता रखते थे और साधन से भी खाली नहीं थे। किंतु उन्हें इस बात का दावा भी नहीं था कि मैं इस विषय में पारंगत हूँ। खैर जितना वह जानते थे उन्होंने इन दोनों को सिखाया । गुरू शिक्षा में गौड़बोले की शिक्षा के संयुक्त कर इन्हेंने अभ्यास बढ़ाया और जो बात समझ में न आई उसे किसी महात्मा से सीखने के लिये उठा रखा ।

यो इन दोनों का समय अध्ययन, मनन घर निदिध्यासनादि में सदाचार के साथ वर्षों तक व्यतीत होता रहा । किसी प्रकार का विशेष नही, बिलकुल प्रलोभन नहीं। किंतु इस अवसर में एक घटना ऐसी हो गई जिससे इनके त्याने को कसौटी पर कसले का मौका आया। घटना एसी वैसी नहीं, बस "इस पार या उस पार" का मामला था । यदि उसे ग्रहण कर लिया तो संसार त्याग देने पर भी पक्कां संसारी बनना पड़ा और छोड़ दिया तो एक सीढ़ी ऊँचे । बात यों हुई कि पंडित प्रियानाथजी ने एक दिन इस तरह प्रस्ताव किया--

  • महाराज, आपके अपेक्षा तो नहीं है । जिसने संसार का तिनके के समान छोड़ दिया उसे अपेक्षा ही क्या ? और आप अपना कार्य साधन भी कर रहे हैं परंतु इसके साथ यदि आपके हाथ से लोकोपकार भी है तो कैसा ?"

“हैं पिता ! हम तुच्छ प्राणियों के हाथ से लोकोपकार ? जब हम ही नहीं, जब हम लुहार की धौकनी की तरह श्वास लेने पर भी मुर्दे हैं तब लोकोपकार कैसा ? हाँ इस