पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(८)
कछू चाहौं। कहौं सोचि मन में रहौं कर्म अपने जानि त्रास आवै ।
 
यहै निज सार अधार सेरे अहै पतित पावन विरद बेद गावै ।।
 
जन्म ते एकटक लागि आशा रही विषय विप खात नष्टि सृप्ति मानी ।
 
जो छिया छरद फरि सकल संतन तजी तासु मति मूढ़ एस प्रति उनी
 
पाप मारग जिते तेब कीन्हें तिते बच्यो नहि कोई जहं सुरति मेरी।
 
सूर अवगुण भरजो आइ द्वारे परवो तकी गोपाल अब।शरण तेरी।। ३ ।।
 
सारंग----तुम हरि साँकरे के साथी ।। टेक ।।
 
सुनल पुकार' परम अतुर है दौरि छुड़ाये। यो ।।
 
गर्भ परीचित रक्षा कीनी बेद उपनिषद राखी ।
 
असन बढ़ाय द्रुपक्षतनया के सभा मोझ मत रखी ।।
 
राज रवनि गाई व्याकुल है दै दै सुत को धीरक।।
 
माग्ध हति राजा सब छोरे ऐसे प्रभु पर पोरक ।।
 
कपट स्वरूप धरयो जब कोकिल नृप प्रतीति करि' मानी।
 
कठिन परी तवही तुम प्रकटे रिपु हति सब सुखदानी ।।
 
ऐसे कहीं कहां हैं लों गुण गण लिखत अंत नहिं पइए ।
 
कृपासिंधु उनही के लेखे मम लल्जा निबहिए ।।
 
सूर तुम्हारी ऐसी निवही संकट के तुम साथी ।
 
ज्यो जानो त्यो करो दीस की बात सकल तुम हाथी ।। ४ ।।