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साधुओं को गोसेवा के लिये सबसे बढ़कर सुविधा हैं । गाँव में दम घर फिरकर आटा माँग लाए, उससे चार दिक्कड़ बना'कर ठाकुरजी को भोग लगाया और दिन भर गोसेवा, ठाकुर सेयर और भूले भटके मुसाफिरों के आतिथ्य के सिवाय कुछ कम ही नहीं । रात के भजन करना, लोगो को उपदेश देना और बालकों को पढ़ाना । भारतवर्ष में लाखो गाँव होगे । ऐसा कोई गाँव ही नहीं जहाँ मंदिर न हो। । बस जहां मंदिर है वहाँ देव-पूजा के साथ धमपिदेश को, धर्मशाला का, पाठशाल का और गोशाला का एक साथ काम निकलता था और खर्च केवल चार रोटी का । उस समय यह उपकार तो केबल छोटे छोटे मंदिरों से,मठों से था किंतु बड़े बड़े मठाधीशां, महंते और अचार्यो का उपकार बेहद था। उनको भोग विलास से बिल्कुल वैराग्य था। कपड़े के नाम पर दो कोपनी, एक कंबल, बरतन के लिये तुंबी, कठीतीं और खाने के लिये भगवान का जो कुछ प्रसाद मिल जाय वही बहुत था । बस सती सेवकों से अथवा जमीन जीविका से जो कुछ इकट्ठा हो जाय वह या तो गौओ की सेवा में, साधु महात्माओं के आतिथ्य में अथवा आए गए के सत्कार के लिये । दिन रात इस बहाने से लोगों को सत्संग मिलता था, उपदेश मिलता था, अध्ययन मिलता था और दवा मिलती थी। जिस समय भारत में इस तरह की व्यवस्था थी उस समय न धर्मसभा की अश्यकता थी और न लेकरबाजी की और न धर्म•

आ० हिं०-११