पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१७२

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ऐसा करने की आवश्यकता भी है और कुछ काम भी हो सकता है परंतु ( कोई दस मिनट तक आँखें मूंदकर विचार करने के अनंतर ) मैं इस काम के येग्य नहीं । मुझसे यह काम न हो सकेगा। पिता । मुझे न फंसाओ !"

अच्छा ! आपकी इच्छा । आपको धन्य है । वास्तव में आप न फंसना । अब मैंने समझ लिया कि आप' धन के, अधिकार के और प्रशंसा के लालच में आनेवाले नहीं । आप के पूर्व जन्म का संचय शीघ्र ही आपका पार लगा देगा ।"

बस इसका उन्होंने कुछ जवाब न दिया । जितनी देरी तक इन दोनों का संवाद होता रहा साध्वी साधुनी, साधु महाराज की बहन चुपचाप सुनती रहीं। वह अध्ययन के सिवाय कभी कुछ बोलती भी नहीं थीं। अब भी न बोलों किंतु उनके मुख की मुद्रा से इंडित जी तोड़ गए कि भाई ने जो कुछ कहा है बहन की सम्मति से । इतना होने के अनंतर "नमो नारायण" करके उन दोनों के चरणों के प्रणाम कर पंडित जी घर आ गए। इसके अनंतर क्या हुआ सो लिखने की आवश्यकता नहीं। हाँ दूसरे दिन पंडित जी भिक्षा लेकर जब उनकी कुटी पर गए तब बह जनशून्य थी । पंडित जी के दिए हुए वस्त्रों में से एक लँगोटी, एक धोती और एक तुंबी के सिवाय सत्ब वहीं पड़ा हुआ था । वह वहाँ उन महात्माओं के दर्शन न पाकर रो दिए। कल की बात पर उन्होंने अपने आप को बहुत धिकार और आज ने माघुसेवा