पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१८

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घनाश्री- भाजु हौं एक एक कर टरिहौं ।। टेक ।।।

के हमही कै तुमही माधव अपना भरोसे लरिहौं ।।

हौं तौ पतित अहौं। पीडिंत को पतितै है निम्तरिहैं ।

अबहौं उधर नचन चाहत हौं तुम्हैं बिरद बिनु करिहौं। ।।

कत अपनी परतीत नसावत मैं पायो हरि हीरा।

सूर' पतित तबही लै उठिहैं जब हँसि देहो वीरा ।।५।।

इस बार सृरदार जी के पद पंडित, पंडितायिन, गौड़बोले तीनों ने मिलकर गए। साथ में राग भरने के लिये बूढ़ा, बुढियां भी मिल गए और जब ताल सुर अच्छा जम गया तो एकदम दर्शनियों में सन्नाटा छा गया ! मन की आंखें हरि चरणों में और कान इनके नाम में । यो गायन समाप्त होने पर “धन्य ! धन्य!" और शाबाश ! शाबाश !"की आवाज और भी "खूब अमृत का शब्द भीड़ में से बारबार उठकर मंदिर में गूंजता हुआ बाहर तक प्रतिध्वनित होने लगा किंतु झोंपकर सिर झुका लेने के सिवाय पंडित जी ने कुछ उत्तर में दिया । वह फिर समय पाकर भगवान जगत के नाथ की यो स्तुति करने लगे---

" हे अशरण शरण, इससे बढ़कर और क्या कहूँ ? जो कुछ मैंने अभी निवेदन किया हैं वह महात्मा सूरदास जी से उधार लेकर । उनकी सी योग्यता मुझ अकिंचन में कहाँ है जा मैं अपनी विनय आपको सुना सकूं? भला उनका तो आपसे कुछ दावा भी था। दावा था तबही वह आपके