पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१८८

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सिद्धांत था । इसके लिये अपने प्राण तक न्योछावर कर देना वह बड़ी बात नहीं समझते थे । ब्रिटिश साम्राज्य की छत्रछाया में परमेश्वर के अनुग्रह से यदि ऐसा अवसर ही न आने तो इसको वह क्या करे’ किन्तु वह तन से, मन से और धन से कभी दूसरे का अप्रिय, अहित नहीं करते थे और जहाँ तक बन सकता था नहीं होने देते थे। इससे पाठक समझ सकते हैं कि जो काम उनके सिपुर्द किया गया उसका उन्हेांने कैसा प्रबन्ध किया होगा ? प्रायः अमलेवाले इस बात की शिकायत किंछा करते थे कि वह सर कड़ी देते हैं। किन्तु वह अपराधी को योग्य दंड देकर बदमाशों को ठिकाने ले आए थे इसलिये प्रजा उनकी वाहवाही करती थी । क्षमाशीलता का भी वह एक नमूना थे ! किसी ने क्रोध में आकर उन्हें गाली दी, कोई उन पर आक्रमथा करने को तैयार हो गया अथवा किसी ने पत्थर उठाकर मार ही दिया। इस पर उनका अर्दली का सिपाही उसकी गति बनाने को तय्यार हुआ परंतु लाल लाल आँखें निकाल कर "नहीं ! हरगिज नहीं ! खबदार हाथ उठाया ते !" कहकर उन्होंने उसे रोका और "भोला है ! समझ नहीं है ! बोजल बोल तुझे कष्ट क्या हैं ?" कहते हुए उस मारनेवाले को उलटा लज्जित कर दिया ।

ऐसी दशा में यह कहने की आवश्यकता नहीं कि जिस समय उन्होंने इस्तीफा दिया सब ही को कितना कष्ट हुआ होगा । हाँ उनका इस्तीफा बड़ी कठिनता से स्वीकार हुआ ।