पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१९३

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की है। आजकल दुनिया में रूपया ही सबसे बड़ी चीज समझी जाती है । लोग कहते हैं कि"रूपया खुदा का बच्चा है* परंतु आच्छ ने स्वार्थी जीवों ने उसे खुदा का वाप तक मान लिया है। खैर ! इसके लिये पाँच पाँच रुपए के शेयरों से कंपनी खड़ी कर सकते हैं । युरोपवालों को इस उद्योग से ही बड़ा लाभ हुआ है परंतु भारत की कंपनियाँ पनपती नहीं । ईश्वर की कृपा से अब इस प्रकार का उधोग उन्नति पर हैं। इस उधोग से "पांच जने की लाकड़ी और एक जने का बोझा ।" किसी पर विशेष बोझा नहीं पड़ता और अनायास रुपया इकट्ठ हो जाता है परंतु प्रथम तो मिलकर काम करने की भारतवासियों में आदत नहीं । दूसरे हम लेागों में सत्यनिष्ठा की मात्रा बहुत घट गई है। बेईमानी आगे और सच्चाई पीछे । तीसरे अभी तक हम लोग इस उद्योग में युरोपियनी के सामने दक्ष नहीं हुए हैं। इस कारण अपने अनजानपन से ऐसी ऐसी भूलें कर बैठते हैं जिनके कारण चढ़ने के बदले गिरते हैं, नफे की जगह टोटा उठाते हैं। और चौथे यह कि परदेशी व्यापारियों के जोर से उनके स्वार्थ में विक्षन न पड़ने वाले इसलिये हमारे यहाँ के कायदे कानून भी हमें ऐसे उद्योगों की उत्तेजना देने के स्थान में अधिक अधिक जकड़ते हैं। कंपनियां के ठीक ठीक न पनपने के, जन्म लेकर नाश हो जाने के, दिवाले' पड़ जाने के ऐसे ही अनेक कारण हैं । इसलिये इस कार्य के लिये कंपनी खड़ी करना मैं अभी उचित नहीं समझता ।"