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प्रकरण--६५
प्रेत का मोक्ष

"क्या जी! तब आपका बहम अभी तक नहीं निकला ? जब जिक्र आता है तब ही "आबू के साधु" का नाम लेकर आप ताना दिया करते हैं। क्या सचमुच ही आपका संदेह है ? अथवा विनोद के लिये ?" ,

वहम और विनोद, परस्पर शत्रु हैं । जहाँ वहम वहाँ बिनोद नहीं और जहाँ बिनोद वहाँ वहम का काम क्या ? परंतु यहाँ वहम भी है और विनोद भी है । जो हैं तो दोनों हैं और नहीं तो दोनों नहीं ! अथवा कभी एक और कभी दूसरा !"

"वाह ! सब कुछ कह दिया और कुछ भी नहीं कहा । आपके ऐसे तर्क से मैं गंवारी क्या समझूं कि आपके मन में क्या है ? पहेली न बुझाइए। साफ कहिए कि आपके मन में क्या है ? इस दासी को अच्छी तरह समझा दीजिए कि आपके मन में क्या है ? आप विनोद से कहते हैं और मेरे ऊपर सौ घड़े पानी पड़ जाता है ।"

“अच्छा ! तू ही कह कि मेरे मन में वहम है अथवा विनोद ? जब मेरे दिल का तेरे दिल में टेलीफोन है तब तू स्वयं सेाच सकती है कि वहम हैं या विनोद ! तैने तो दावा किया है न कि तू दूसरे के मन के पहचान सकती है ?"