पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/२०४

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“खैर ! तैने अपनी भूल स्वीकार कर ली । तब मैं पूछता हूँ कि यदि वह निर्दोष था तो उसने रात्रि को तुझे क्यों बुलाया ?"

“उसका चेहरा निर्विकार था, तप उसके मुख के भाव से टपका पड़ता था इसलिये मानना पड़ेगा उसने मुझे बुरी नीयत से नहीं बुलाया ! उसने बुलाया था मंत्र देने के लिये और दिन के अवकाश न मिलने से, अपाह्निक के निपट जाने पर रात्रि के समय देने के लिये । तिस पर भी मैं भूल स्वीकार करती हूँ। भूल जगजननी जानकी से हुई है। मैं बिचारी गंवारी किन गिनती में !"

“अच्छा भूल स्वीकार करती है तो बोल हारी !”

"एक बार नहीं लाख बार हारी । आपसे तो हारने में ही शोभा है, हारने में ही कर्तव्यपालन है ।"

"अच्छा हार गई तो दंडे ! दंड भी भोगना होगा ।"

"पर दंड आपने क्या सोचा हैं ?"

प्रयाग का सा साफा और कोट !"

“नहीं सरकार, ऐसा नहीं होगा ! मैं एक बार पहन चुकी ! अब पारी आपकी हैं। आपको पहनना पड़ेगा । पहनकर वादा पूरा करना होगा। आज मैं अपने हार्थों से पहनाऊँगी । पगड़ी की जगह साड़ी, धोती के बदले लहँगा और केट की ठौर अँगिया पहनाऊँगी और रुच रुचकर सजाऊँगी । ऐसी सजाऊँगी जिससे कोई पहचान न सके कि आप पंडित प्रियंवदानाथ हैं।"