पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/२०७

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हमारे सुख में अपना सुख मानने से ही उन्हें आसक्ति हुई । बस' यह आसति ही सब' झगड़ों की जड़ है । केवल आसक्ति से ही जब क्रीड़ा भंवर हो जाता है तब वही उसे इस योनि में घसीट ले गई । घसीट ले जाने पर भी उसके सदगुणों के प्रभाव ने, उसके सुकर्मो ने उसे प्रेतयोनि पाने पर भी कुकर्मों में प्रवृत्त नहीं होने दिया, इसलिये ही उसने तुझको सताने के व्याज से सुझाव और अल्प प्राप्त का, अल्प आसक्ति का अल्प' ही दंड मिलकर उसका छुटकारा हो गया ।”

“हाँ ठीक है। यथार्थ है । वास्तव में उन्होंने मरने पर भी हमारी भलाई की । यह ( बालक को दिखाकर } उन्हीं के आशीर्वाद का फल है। उन्होंने स्वयं दु:ख उठाकर हमें सुख पहुँचाया । हमें अपने कर्तव्य की, गया-श्रद्धादि करके की, यात्रा क सुख लुटने की याद दिलाई । धन्य है ! लाख बार धन्य है !! मैं अब बहुत पछताती हैं। उन्हें बुरा भला कहने पर अपने आपको धिक्कारती हूँ। अब, जब मैं सोचती हूँ तब निश्चय होता है कि उनके जीते जी मैं जो उनसे अपना दुःख' मानती थी सो भी भूल से। उसमें दोष मेंरा ही था । उनकी सीधी शिक्षा भी मुझे टेढ़ी लगती थी । भगवान् इस पाप से मेरी रक्षा करे ।"

जिस समय इनका इस तरह संभाषण हो रहा था फिर वही पहले की सी अवाज आई । “कोई है ? बाहर कोई अवश्य है। शायद कोई तुझे बाहर बुला रहा है ।"