पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/२०८

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"रात के बारह बजे मुझे कौन निगोड़ा बुलाने अक्षर ?"

"शायद घुरहू है या आबू का साधु !"

“नहीं जी ! हर बार की दिल्लगी अच्छी नहीं । बाहर से कोई सुनता हो तो न मालूम क्या समझे ? आग लगे उन दोनों के ! एक तो गया जहन्नुम में और दूसरे का भी मेरे सामने नाम न लो ।"

“खैर तो और कोई होगा, शायद बहू आई हो । आज छोटा भैया भी तो यहाँ नहीं है। जीजी को अपना दुःख दर्द सुनाने आई हो ! जल्दी किवाड़ा खोलकर देख तो कौन है ?"

“नहीं मैं न खोलूंगा। मुझे डर लगता है। फिर आपके लिये कोई नई दिल्लगी खड़ी हो जाय ।"

इतनी बातचीत हो चुकने पर पंडित जी खड़े हो गए है। प्रियंवदा ने किवाड़ खोले । किवाड़ खुलते ही लालटेन लिए हुए सुखदा संकोच' से पीछे को हटी और तब “बहन क्या बात है ?" कहकर प्रियंवदा ने उसे रोका । पंडित जी हटकर अलग चले गए और देवरानी जेठानी में इस तरह बातें हुई ----

“मैने यहाँ आकर तुमको जगा दिया । मैं माफी माँगती हूं परंतु करूं क्या ? (लड़के की ओर इशारा करके) आज न आप सोता है और न मुझे नींद लेने देता है । बस "अम्मा ! अम्मा !!" की रट लगाकर इसने मेरा बुरा हाल कर रखा है । मैने तो पहले ही तुमसे कह दिया था कि यह मेरे पास न रहेगा । बस' सँभालो अपनी धरोहर ताकि मैं सुख से सोऊँ !"