पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/२१

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अर्जुन की तरह हमें भी दिव्य दृष्टि मिल जाय तो हम देख सकते हैं कि इससे राम हैं, कृष्ण हैं, संसार है और सब कुछ है। कुछ कुछ झलक मुझे भी ऐसी ही प्रतीत होती है किंतु हे जगदीश, आज आपकी वह मृदु युमक्यान्न कहाँ गई ? क्या आप सचमुच हस पामरों से रूठ गए हैं ? बेशक ! आप रूठे ही से मालूम होते हैं। अपनी संतान की अनीति देखकर माता जैसे अन्न का भाव दिखलाती है किंतु ह्रदय से नहीं, इस तरह आप भी रूठे हैं: पापो के सागर में डूबे हुए ््््््््््््््््््््््््् हम लोगों के नैत्र ही नहीं। आंखों की जगह केवल गोल गेल गढ़े हैं। यदि दिव्य चक्षु, नही केवल ह्रदय चक्षु भी हम रखते हो और वे पाप विकारों से रहित हो । तब हम आपकी वास्तविक छवि का अवलोकन कर सकते हैं। जब तक प्रारब्ध के फल में दिव्य चक्षु न मिले,हिए की आंखें न खुल जाए तब तक चर्म ही गनीमत हैं। हमारे कितने ही भाइयों के तो यहां आकर वे भी बंद हो जाते हैं। मंदिर के भीतर जाने पर भी बाबा के दर्शन नहीं होते ।

“हाँ हाँ ! ऐसा ही कहते हैं ? कहते क्या है ? आंखो से देख लो ! खैर परंतु महाराज मूर्तियों तीने ही विलक्ष हैं, अंतिम हैं। और और प्रतिमाओं में उनकी मधुरता, उनकी मृदु मुसक्यान, उनको अलौकिक श्रृंगार देखकर अंत:करण द्रवित होता है इसलिये लोग कहते हैं कि उनका सौंदर्य इसका कारण है किंतु जब यहां सुंदरता का नाम नहीं, कुरू.