पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/२२०

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और ताजा कर देने की मुख्य सामग्री है ! जो हँसना या हँसाना नहीं जानता अथवा दिन रात की साठ घड़ियां में जो एक दो बार भी नहीं हंस लिया करता है वह सचमुच ही या तो योगी है अथवा पशु है। योगी भी राजा जनक की श्रेणी का नहीं, “गृहेषु पंचेंद्रियनिग्रहं तपः” का अनुयायी नहीं, दुनियादारी में रहकर राग द्वेष छोड़ देनेवाला, फल की आकांक्षा छोड़कर अपने वर्गाश्रम धर्म के अनुकूल कार्य सधन करते हुए उन कामों में निर्लिप्त रहनेवाला योगी नहीं--

वह हिमालय-गिरि-गुफा में समाधि चढ़ाकर कंद मूल फल से अपना गुजारा कर लेनेवाला, अदिमी की सूरत से घृणा करनेवाला योगी है। बस पंडित जी प्रथम णी के योगी थे । वह बूढ़ी में वृद्ध, जवानों में युवा और बालकों में बच्चे बनकर रहते थे। जिस समय उन्हें व्याख्यान देने का, साधार बातचीत करने का अथवा यो ही खाली बैठे रहने का अवसर मिलता अथवा किसी को मन मारे देखते तो वह एक ही बात ऐसी कह डालते जिससे सबके सब खिलखिलाकर हँस पड़े। किंतु उनकी एक बात भी फूहड़ नहीं, अश्लील नहीं, भदी नहीं और मतलब से खाली नहीं, वे बहाने से वीरवल के से उपदेश देनेवालों में हैं।

एक बार किसी सुधारक अफसर ने नई टकसाल में ढलकर धोबी से ब्राह्मण बने हुए व्यक्ति को अपने दफ्तर में क्लक की जगह दे दी। दूसरे दिन पंडित जी घर के कपड़ों