पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/२२१

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की मोट बाँधकर नदी पर धोने के लिये पहुँचे । वहाँ जाकर वहीं भट्ठी में मैले कपड़े को गर्म पानी में उबालना, खार या साबुन लगाकर सुखाना और तब "संचो राम ! संचो राम !!" की अवाज के साथ उन्होंने कपड़े धोना प्रारंभ किया। वह जानते थे कि अफसर महाशय थोड़ी देर में इधर होकर निकलनेवाले हैं। सचमुच साहब उस तरफ आए और पंडित जी की ऐसी रचना देखकर कहने लगे....

"हैं हैं !! आज यह क्या ? आज धोबी का काम कर्मों ?"

" हां साहब ! सीखता हूँ। अब नए जमाने में नई टकसाल से जब धोबी से ब्राह्मण बनने लगे हैं तब उनका काम कौन करेगा ?"

“बेशक !” कहकर अफसर महाशय कुछ मुसकुर, कुछ शर्माए और छड़ी उठाकर वहाँ से चल दिए। तीसरे ही दिन उन्होंने नए कुतर्क को हुक्म दे दिया--

“तुम पंद्रह झए महीने की कुर्की के बदले अँगरेजी ढंग से कपड़े धोने की दूकान खोलो । उसमें तुम्हें पचास मिल जाया करेंगे ।"

बस इस प्रकार का जवाब पाकर धोबीराज वहाँ से चले गए। उस दिन पीछे उसका क्या हुआ सो लिखने की आवश्यकता नहीं, और न कुछ मतलब है ।

खैर ! पंडित जी जब ऐसे विनादी थे तब उनके यहाँ होली का त्योहार न मनाया जाय तो बात ही क्या ? आज