पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/२२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२१३)

होली है। पंडित जी का कमरा बसंती रंग के समान से सजाया गया है। आज परदे बसंती हैं, लंप बसती हैं, फर्श वसंती है और उनके कपड़ों के सिवाय सब कुछ बसंती है ।चार पाँच बड़े बड़े थालों में तरह तरह की गुलाल भरी हुई है,अबीर रखा हुआ है, कुंकुमे धरे हैं, अनेक डालियाँ भाँति भांति के पुष्पों से डट रही हैं, पान की, इलायची की, लवंग की, और छालियों की भरमार है। कभी डफ पर होली गाई जाती है. कभी तबला ठनकने लगा है और कभी सितार की ताना रीरी । हार्मोनियम अलग। प्राभाऊोन अलग ! आज जाति पांति का भेद भाव नहीं। छोटे बड़े का विचार नहीं। सब होली गाते हैं और पिचकारियाँ भरकर आनेवालों के कपड़े रगते जाते हैं। जो आता है उसके गालों पर गुलाल'मलकर खूब गत बनाते हैं। कभी बालकों से होली खेलते हैं और कभी बुढ़ों से । आज बालक और बूढे समान हैं। यदि कोई "हैं हैं !" या "नहीं नहीं" करता है तो उनकी खूब खबर ली जाती है। ऐसे ही एक महाशय कर्म संयोग से वहाँ आ निकले हैं। उनकी होली पर घृणा देखकर नवागत महाशय को सब लोगों ने घेर लिया है, केई उन पर गुलाल डालने को तैयार है और कोई पिचकारी मारने को । उन्होंने इन होलियारों में से निकल भागने का भी बहुत प्रयत्न किया है किंतु लाचार । तब उन्होंने कड़ककर, आँखे निकालकर, छड़ी उठाते हुए कहा---