पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/२२५

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"नहीं ! व्यभिचार को रोकनेवाली है। काम-विकारा के उफान को निकाल देने के लिए हलका सा जुलाब है, साल भर के तीन सौ पैंसठ दिन तक जो चित-वृत्तियाँ धर्म के वंधन से, समाज के पाय से रुकी रही हैं उन्हें एक दिन में निकालकर निर्विकार होने का साधन है । स्त्री-पुरुष का, परस्त्री का परपुरूष के साथ कमर मिलाकर नाचने से यह हजार दर्जे अच्छा है। दोनों के उद्देश्य एक ही हैं। प्रकार में भेद है और परिणाम में भी भेद है । मनुष्य की चित-वृत्ति स्वभाव से इस ओर जा रहा है । लगाम ढीली छोड़ देने से घोड़ा अवश्य सरपट दौड़ते दौड़ते सवार को गिरा देगा । बस लगाम कसकर उसे खूब दोड़ा लीजिए ताकि आप गिरें नहीं। किंतु जब आप उसे स्थान में ला बांधे तब दुलतियाँ झड़ने के लिये उसे अजाद कर दीजिए !"

"अच्छा यह भी मान लिया परंतु आप जैसे विद्वानों के यहाँ रंडी का नाच । बस ! पंडित होकर आज तो आपने कमाल ही कर डाला । अब दुनिया में इससे बढ़कर बुराई ही कौन सी है जिसे आप छोड़ेंगे । रंडी सब बुराइयों की जड़ हैं । जुआ शराब, पाप सब इसके गुलाम हैं ।"

"जैसा साज है वैसा सामान है ।" जस काछिय तस नाचिये नाचा ।"

“तष, आपने मंजूर कर लिया कि रडीबाजी करने में कोई दोष नहीं है। ऐसी दशा में आप अपने यहाँ इस बात का भी एक स्कूल खोल दीजिए।