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प्रकरण--६८
कुलटा का पछतावा

“बेशक कुसूर मेरा हो हैं। मैंने जैसा किया वैसा पाया । मैं अगर अपने ब्रत पर दृढ़ रहती, सुखदा को बिगाड़ने की केशिश न करती तो कोढ़ चूने का ही समय क्यों आता ? मैं बड़ी पापिनी हूँ । तब ही कोढ़ से गल गलकर भेरी अँगुलियाँ गिर गई हैं, नाक बैठ गई है, पीप बह रहा है, चिउँटियां काटती हैं, मक्खियाँ दम तक नहीं लेने देतीं । हाय ! मैं क्या करूँ ? इस जीने से तो मर जाना बेहतर हैं। अगर कहीं से एक पैसा मिल जाय तो अफीम खाकर सो रहूँ ! पर पैसा आवे कहाँ से ? जब पेट की ज्वाला ही पंडित जी के टुकड़े से ठंढी होती है और जब शरीर ही उनके कपड़े से ढ़ंकता हैं। तब जहर खाने को पैर कहाँ ? खैर ! दुःख पाकर मरूंगी । अपनी करनी का दंड पाकर महँगी । पर हाय ! उस महात्मा के उपदेश पर कान न देने हों का यह नतीजा है। अगर मैं उस समय भी सँभल जाती, फिर कोई कुकर्म न करती तो अवश्य मेरी ऐसी दुर्दशा में होती। खैर ! अब पछताने से क्या ? जल्दी मर जाने ही से क्या होगा ? पापों का दंड यहाँ भी भोगना है और यमराज के यहाँ जाकर भी । बस जीना