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प्रकरण--७०
उपसंंहार

जब से "राधानाथ रभानाथ" के नाम से अजमेर में दुकान खुली पंडित जी के आधा समय वहाँ और प्राधा यहाँ बीतता है। घर में दो तीन सवारियां मौजूद हैं। नौकरी को वह तिलजलि दे हो चुके । बस जब जी में आया घर और जब इच्छा हुई अजमेर । यहाँ जमींदारो के सँभालना, गोशाला की देखभाल, कपड़े, लोई और फेल्ट के कारखाने का निरीक्षण और खेती के कामों पर नजर और वहां दूकान की सँभाल । "आई थीं मैं हरि भजन,ओटन लगी कपास ।" उन्होंने शायद "डाक विभाग और कोर्ट ग्राफ वार्ड स" की नौकरियाँ इसलिये छोड़ दी थी कि उन्हें भगवानराघन के लिये भर पेट समय मिलेगा परंतु जो कर्तव्य का दास है अथवा जो अपना जीवन ही काम करने के लिये मानता है उसे अवकाश कहाँ ? "अवकाश" पंडित जी के कोश में नहीं । काम की भरमार होने पर भी वह जब काम समय के विभाग करके करते हैं तब उनके घबड़ाने का वास्ता क्या है इतना परिश्रम, ऐसी ऐसी झझटे होने पर भी वह भगवदारधन में, ब्राह्मणेाचित कमें करने में और शास्त्रचर्चा में मस्त रहते हैं। उनका वहो आह्निक, उनका वही भगवद्भक्ति में आत्मविसर्जन, तल्लीनता