पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/२५

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पाचक ये ही मछली खानेवाले ब्राह्मण, उन्हें लाकर यात्रिय के पास पहुँचानेवाले शूद्र । वास्तव में बाबा के निकट ब्राह्मण और शुद्र एक हैं, समान हैं, किंतु इसका क्या यह मतलब है। कि मार्ग में लपक लपककर उसमें से खाते जाते हैं, खाते खाते जो कुछ बचना है उसे उसी में डाल दिया जाता है, जो कुछ बचा बचाया हो उसे बटोरकर दूसरे यात्रियों के पास पहुँचा दिया जाता हैं। घोर अनर्थ है । असह वेदना है । न शास्त्र-विहित आचार का कहीं पता है और न महाप्रसाद जैसी अदरगीय वस्तु का आदर ।"

बेशक,आपका कहना ठीक है। बस एक ही बार में मन भर गया। बहुत हुआ ! गंगा नहाए। अब अपने हाथ से बनाना खान और बाबा के दर्शन करना!”

इस प्रकार का मनसूबा करके, विचार स्थिर कर लेने पर भी चित का चैन नहीं हुआ तब अपने मन की भ्राति निवृत करने के लिये--- ‘इधर जाओ तो धाड़ और उधर गिरी तो कराढ" को याद करके पछताते हुए दो यात्री पंडितजी के पास आए । उन्होंने आकर दोनों के मन के भाव उनको समझाने के अंनतर हाथ जोड़कर, निंदा के लिये नही किंतु भक्तिपूर्वक पूछा---

आज ही के दिन में आपकी चर्या देखकर हम लोग के निश्चय हो गया है कि आप परमेश्वर के भक्त हैं, पंडित हैं और लेकाचार को भली भांति जाननेवाले हैं। महाराज,वल्लभसंप्रदाय के मंदिरों में, मंदिर के मुखिया भीतरियों को प्रसाद