पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/२६

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बेचते देखकर ही हमारा जी जलता था । भगवान् का महाप्रसाद जैसा सुर-दुर्लभ पदार्थ, जिसके मूल्य के आगे त्रिलोकी का राज्य भी तुच्छ है वह दुकानें लगाकर बेचा जावे ! बड़े अनर्थ की बात है किंतु यहाँ आकर हम उसे भी गनीमत समझने लगे । यहाँ तो अवज्ञा की,आनाचार की हद हो गई हैं!

“हाँ ! आप लोग ठीक कहते हैं। मन में ऐसे ही भाव उत्पन्न होते हैं। श्री जगदीश -माहात्म्य' मैंने सुना। यहाँ के पंडितों से मेरा वादविवाह भी हुआ। शास्त्रों के मत से यह अवश्य पाया जाता है कि भगवान् के महाप्रसाद का अनादर न करना चाहिए। उस में छुआछूत का विचार नहीं । घृणा उत्पन्न होना भी पाप है किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि हम उसकी पवित्रता भी खो दे, इसकी महिमा का सर्वनाश हो जाय और वह पैरों से कुचला जाय ।"

"हां महाराज! यही हमारा कथन है । परंतु यह तो बाज़ाइए कि किस प्रकार का प्रबंध होने से ये दोष, ये कलंक मिट सकते हैं? और हमें कर्तव्य का क्या है ?

'कलंक भेदनेवाला केवल जगदीश हैं। वह चाहे तो एक क्षणभर में लोगों की गति भति सुधर सकती है। जाति पति के भेद का, छुआछूत के भिन्न भाव का अभाव भी यहां इस कारण से है और केवल उनके लिये है जो संसार के यावत विकरों से रहित हैं, जिन्होंने अपनी इद्रियों की जीतकर, दुनिया के यावत नातेदारों से नाता तोड़कर अपने अंत:

अ० हिं०----२