पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१८)

करण को ईश चरणों में चिपका दिया है। ऐसा करनेवाले शृढ़ था अतिशूद्र तक परमपद प्रा। करते हैं। शबरी, वाल्मीकि, रैदास और धन्ना कसाई आदि अनेक भक्त इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। ऐसे भगवदीय जनों से स्पर्शस्पर्श की, जातिपांति की घृणा न हो । यही वहां के महाप्रसाद का माहाभ्य है। ऐसे भक्त वास्तव में हमारे वंदनीय हैं ।ये शुद्र, अतिशुद्र होने पर भी हमारे पूजनीय हैं। इस इनकी यदि जूठन भी खावे तो हमारा सौभाग्य किंतु भक्ति का हमारे ह्रदय में लेश नहीं, भगवान् के दर्शन करते समय भी उनके चरणों में लौ लगाने के बदले या तो हम रूपयों की थैली को याद करते हैं अथबा पर स्त्री के चरणों की महावर। मंदिर में जाकर भगवान की मूर्ति को नारखने के बदलं जब युवतियों के हावभाव पर हमारी नजर पहुंचकर उनका सतीत्व बिगाड़ने की ओर हमारा मन दैड़ जाता है तब कदाधि हम इस बात के अधिकारी नहीं कि हमारा स्पर्श किया हुआ अन्न कर कोई महात्मा हमारे पापों के कीटाणुओं (ज) का अपने मन में प्रवेश करें। इस कारण यदि उपाय हो सके तो ऐसा ही होना चाहिए जिससे महाप्रसाद की महिमा भी ज्यों की त्यों रहे, नहीं वर्द्धमान हो और हमारा आचार भी रहित रहें ।"

“हाँ महाराज ! यही हम भी चाहते हैं, परंतु इसका प्रकार क्या है ???

‘मेरी लधुमति के अनुसार होना इस तरह चाहिए कि