पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/४२

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पाने से वंचित हैं तब मैं किसी काम का नहीं । मेरे घमंड को चूर करने के लिये ही मेरे विशाल बक्षःस्थल पर जहाज दौड़ाए जाते हैं। मेरे अभाग्य में केवल इतने ही सौभाग्य का चिह्न समझो जो किसी सुकृत के फल से मेरे मोती प्रभुचरणों तक पहुँच जाते हैं और इसी का यह फल है कि पर्वणी पर लोग मुझमें आकर स्नान करते हैं। नहीं तो मेरा खारा पानी न किसी के पीने के काम आता है और न नाना प्रकार के पदार्थ पैदा करने के ।"

बस इसी प्रकार की कल्पनाएँ करते और उन्हें साथियों को सुनाते पंडित जी घर गए । मार्ग में उड़ियों के शरीर से तेल की दुर्गध, मरी हुई मछलियां की खरीद फरोख्ल और उनकी दुर्गधि के मारे सिर फटा पड़ने की दुहाई देकर नाक पर कपड़ा लगाए चले जाने से लोगों ने पंडित जी से शिकायत भी कम न की किंतु उस समय वह गले में उपवीत डाले एक ब्राह्म का मछरियाँ खरीदते देखकर मन ही मन घबड़ा रहे थे, पछताते जाते थे और उनका ऐसा पाप कर्म देखकर उन पर क्या करने जाते थे । इसलिये उन्होंने किसी की शिकायत पर कान न दिया । मकान पर पहुँचकर थोड़ा सुस्ता लेने के अनंतर उन्हाने इतना अवश्य कहा कि---

“बाबा का यहाँ यदि मंदिर न होता तो कदाचित् भारतवर्ष के धार्मिक हिंदू इसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते। विहार को गया और मिथिला ने पवित्र किया और उड़ीसा

अ० हिं०---३