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(प्रकरण-५०)
भगवान में लो

भगवान् की पुरी धार्मिक हिंदुओं के लिये तो वास्तव में वैकुंठपुरी है ही । किंतु नवीन समुदाय के लिये भी विश्रांति का केंद्र है। प्रथम तो समुद्र तटवर्तिनी भूमि का पवन ही सुखस्पर्श होता है। वहाँ न शरीर को झुलसाकर व्याकुल कर डालनेवाली लू का नाम है और में प्राणी मात्र के जीवनाधार शारीरिक रक्त का शोषण कर डालनेवाली कड़ी धूप का । बढ़ते बढ़ते वायुवेग की मात्रा यदि कभी कभी बड़ जाय तो भले ही बढ़ जाय किंतु समुद्र के श्रुतिमधुर निनाद के साथ पवन के झकोंरों से वृक्ष पल्लबों की खड़खड़ाहट मिलकर भगवती प्रकृति देवी के एक अजय राग से अश्रत पूर्व बाजा बजाने और मधुर स्वर अलापने का अवसर मिलता है। वहाँ नवीन काट छाँट से, गमलों की माला से और दूध के तख्ने बनाकर बाग बगीचे को चाहे कृत्रिम सौंदर्य की साड़ो न उड़ाई जाय परंतु पुरी की पवित्र पृथ्वी के प्रकृति में वन उपवन की स्वाभाविक हरियाली में नैसर्गिक लता पल्लवों की साड़ी पहनाकर उन पर जंगली पुष्पों के हीरे मोती जड़ दिए हैं । जहाँ साक्षात् त्रिलोकीनाथ का निवास है वहां का जल वायु तो अच्छा होना ही चाहिए । बस इन्हीं बहाते का ध्यान