पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/४७

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बतलाकर आगरा भी किया किंतु अंत में पंडित मंडलो ने जो कुछ दिया उस पर संतुष्ट होकर कंठी प्रसाद और चित्र देकर उनकी पीठ ठोक दी । पंडित जी भी ऐसे संतोपी ब्राह्मण को काम देने वाले थोड़े ही थे । उन्होंने अंत में यथाशक्ति गुरू जी को भेंट करके उसे कहा-----

“महाराज, जो कुछ पत्र पुरुष इसे बन सका आपकी भेट किया गया । जो कुछ दिया है वह केवल आपके योगाक्षेम के लिये हैं । भगवान् का घर ना हम से भर सकेगा और न सम उनके कुवेर से भंडार में एक मुट्टी डालने में समर्थ हैं। वह विश्वंभर हैं और हम उनकी चरण रज के भिखारी । भक्ति पूर्वक प्रणाम करना ही उनकी भेट हैं। सो हमने यहाँ आकर भी किया और यदि उनका सचमुच अनुग्रह है, यदि हमारा अंत:करण पवित्र होकर इनकी कृपा का अधिकारी वन जाय तो घर बैठे भी तैयार हैं क्योंकि चार जब किसी के घर में सेंध लगाकर अथवा ताला तोड़कर भीतर जाता है तब चोरी का माल पाता है किंतु उनके सम्मान दुनिया में कोई चोर नहीं। बाबा हमारे घर से हजार मील पर बैठा हैं, कदाचित इससे भी अधिक दूरी पर, किंतु यहाँ ही बैठे बैठे सात ताले के भीतर से, हमारे हृदय में से उसका नाम लेते ही पाप चुरा लिया करता है । सो महाराज उसकी ऐसी चुराने की आदत देखकर सारे ही पापों का बोझा उसकी ड्योढ़ी पर डालने और उसकी अनन्य भक्ति की भिक्षा माँगने के आए