पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/४९

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"उत्तम परामर्श है। मैं सिर के बल तैयार हूं। आपकी दी हुई भेट और पक्का खिड़की का खर्च मिलाकर तो यह और इससे अधिक सौ दो सौ ऑल भी मिला दूंगा। आज पीछे जितने यजमान यहां आकर मुझे देंगे उसमें से पांच रुपया सैकड़ा दूंगा। यात्रियों में से कार्य के लिए जो कुछ मिल जाए वह अलग। मैं अपने और भाइयों को भी उत्तेजना दूंगा। आपने ऐसी सलाह देकर बड़ा उपकार किया।"

"महाराज, आप हिंदी बहुत शुद्ध बोलते हैं। इस देश में ऐसे हिंदी! यहां तो उड़िया की "आशो! आशो! चाहिए।"

"मैंने हिंदी पढ़ी है। मैं हिंदी के ग्रंथ और समाचार पन्न पढ़ा करता हूँ। यो भला मुझे तो हिंदी से प्रेम ही हैं। किंतु यहाँ नगर भर में फिरकर देखिए। यात्रियों में बंगाली हैं, गुजराती हैं, मराठे हैं, मदरासी हैं, पंजाबी हैं और प्राय: सब ही प्रांत के लोग आते हैं। ऐसे समय हिंद जाने बिना गुजारा नहीं । ये लोग आपस में बातचीत करते समय हिंदी की शरण लेते हैं क्योंकि न तो एक मदरासी की बात पंजाबी समझ सकता है और न मराठे की बंगाली । लाचार हम लोगों को हिंदी सीखनी पड़ती है। हमारे जाति भाई और हमारे नौकर चाकर सब टूटी फुटी हिंदी बोल लेते हैं ।"

“हाँ ? इसी लिये हिंदी किसी दिन भारतवर्ष की सर्वजनिक भाषा बनने के योग्य हैं । बन भी रही है। प्रकृति स्वयं उसकी उन्नति कर रही है ।"