पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/५१

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स्वीकार हार है । जगदीश की ही ऐसी इच्छा हैं तब कोई क्या कर सकता है ? इस प्रकार जिस समय अपना अम्बाय खोलकर गाड़ीवालो को विदा करके वहाँ ठहरने की ये तैयारी कर रहे थे तब ही इन्हें कांता नाथ' का क्षार तार मिला। तार में क्या लिखा था सो इन्होंने किसी को बतलाया नहीं । प्रियंवदा भी इनकी ओर निहार निहारटर बारंबार आँखों ही आँखों में पूछती पुछती रह गई परंतु "कोई चिंता की बात नहीं। सब आनंद ही आनंद है" के सिवाय इन्होंने कुछ न कहा मैं फिर सामान गाड़ियां पर लदवाकर स्टेशन की ओर कूच कर दिया ।।

पुरी से विदा होकर पहले इनका दक्षिण की यात्रा करने का दृढ़ संकल्प था । इन्होंने अपने साथियों से यह कह भी दिया था किंतु इस तार ने इनका महसूबा बदल दिया । 'भगवान् की इच्छा ही जब ऐसी है तब हमारा क्या चार ? वह नटमर्कट की तरह सब के नाचता है। इस विचारे किस गिनती में ।” कहकर यह चुप हो गए । अब आँखों में से आंसुओं की धारा वह रही हैं, यह गाड़ी में सवार हुए हैं और इनका शरीर भी आगे बढ़ रहा है किंतु इनके मुख के भाव से बोध होता है कि मानो यह अपने हृदय के पीछे ही छोड़ आए हैं। इन्होंने खिड़की में से सिर बाहर निकाल रखा है और वे एकदम पलकें न मारकर "नीले चक्र" पर नेत्र गाड़े चले जा रहे हैं । पहले तो साधारण दृष्टि से