पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/५३

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टिकट लिए और भी सब लोगों को एक ही दर्जे में बैठने का अवसर मिल गया।

आप पंडित जी भगवान का स्मरण करते, जगदीश की भृति में ध्यान लगाए, कभी बातें करते और बीच बीच में रुक-रुक कर ध्यान मग्न होते हुए आगे बढ़ने लगे । सचमुच ही पंडित जी ने नेत्र संचालन के प्रेम-संकेत से अपनी चिर परिचित्र लोचनों की भाषा से प्रियंवदा के संतुष्ट कर दिया था किंतु जब तक उनकी गौड़बोले ने धाराप्रवाह वरकृत न आरंभ हुई थी और वह मन ही मन मन को मसोसती रही । अब उसके जी में जी आया ।