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प्रकरण-५१'
'कांता पर कलंक

पंडित रमाकांत शास्त्री ने लड़को को पढ़ा लिखकर रुपया कमाने में प्रवीश कर दिया था, वणाश्रम धर्म के सिद्धांत उनके हृदय पटल पर अंकित कर दिए थे, इहलौकिक और पारलौकिक ज्ञान उनके मन में इस रीति से ठसा दिया था कि वे कभी ठोकर न जायें और कभी भलाई छोड़कर बुराई की और एक पैर भी न बढे । इतना होने पर भी उन्हें इस बात का खटका था कि कहीं युगधर्म बालक पर अपना असर डालकर उन्हें रुपए पैसे के लिये आपस के लड़ाई झगड़े में न प्रवृत्त करे, जवान होते ही अपनी अपनी जोरूओं को लेकर बेटे अलग न हो बैठे। यदि पड़ोसियों से लड़ाई झगड़ा रहा ते आदमी में पैदा होकर ही क्या क्रिया ? यदि कुल के, जाति के, बस्ती के और हो सके तो देश के चार सजनों ने जिसकी प्रशंसा न की उसका जन्म लेन निरर्थक है । वह कहा करते थे.---

‘गुणि:शगणनाभै ने पतति कठिनी सुसंभ्रमाद्यस्य ।

क्षस्यांबा' यदि सुतिनी बदं चंध्या कीदृशी भवति ।।

इस श्लेक को दिन भर में कम से कम एक दो बार पढ़ाकर वह बेटों को समझाया करते थे कि "यदि तुमने जन्म लेकर गुणवानों में गवाना ने करवाई, यदि गुणवानों की