लाभ समझाते रहने पर भी वे डरते थे कि कहीं बहुओं की बदौलत अथवा पैसे के लिये ये आपस में उलझ न पड़े, इस लिये उन्होंने अपने जीते जी अपने माल ताल का, अपने धन दौलत का, बाग मकान का, लेने देने का और जमींदारों का बटवारा कर दिया था। उनके लिये मकान इस ढंग के बनवा दिए थे जिनमें यदि वे अलग अलग रहें तो भी सुख से रह सके, लड़ाई हो जाय तो एक की दूसरे पर परछाँही तक न पड़े और मिलकर रहें तब भी सब बातों की सुविधा रहे । हाँ ! दो चीजों के हिस्से नहीं किए थे । एक ठाकुर-सेवा और दूसरा पुस्तकालय । इनके लिये उनकी यह आज्ञा थी कि--
“यह तुम्हारी संयुक्त संपत्ति है । जो योग्य हो, जिसके आंतरिक भक्ति हो उसी की इन पर अधिकार है। नास्तिक के ठाकुर-सेवा देना कौवे को कपूर चुगाना है और निरक्षर भट्टाचार्य के पाले यदि मेरी पुस्तकें पढ जायें तो पंसारियों के यहाँ विकती फिरें ।" केवल यही क्यों ? उन्होंने इनके लिये अलग जीविका निकालकर ऐसा स्वतंत्र प्रबंध कर दिया था जिससे ठाकुर-सेवा अच्छी तरह होती रहे और पुस्तकालय में चुस्तके की वार्षिक वृद्धि होकर लोगों को उससे लाभ उठाने का अवसर मिले ।
मकान उनके लिये जो बनाए थे वे यद्यपि ऐसे थे जिनमें घर के दस पाँच आदमी और चार नौकरों के स्वतंत्रता से रहने की गुंजायश थी किंतु इसके साथ शास्त्री जी इस बात