पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/५८

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की व्यवस्था दीं हैं और जब वह पति की उपस्थिति में उनके निकट रहकर भी वैधव्य भोग रही है तब उसके अंत:करण में व्यथा तो होनी ही चाहिए किंतु फिर भी जब से उसने गोसेवा में मन लगाया है तब से वह इस दुःख को भी सुख मानकर मग्न रहती है। वह मगन रहती है और इस आशा से आनंद में रहती है कि उसे जो सजा दी गई हैं वह आजीवन नहीं है । उसकी अवधि है और अवधि के दिन दिन दिन निकट आते जाते हैं ।

अवश्य यह इस घर के, पति पत्नी के परस्पर बर्ताव का खाका है किंतु मथुरा का तिरस्कार होने के दिन से जब उसके बस स्त्रियों का प्रया जाना बंद है तब लोगों को क्या मालुस कि वे आपस में किस तरह बरसते हैं। कोई पत्नी के पैरों में बेड़ियाँ डाल कर नित्य उसके दस’ जूते मारने की दुहाई देती है और कोई कोई यहाँ तक कह डालती हैं कि वह बिचारी दाने दाने के तरस रही है । आठ पहर में एक बार रूखी' सूखी मिल गई यही ते योही भूखों मरते अपने घटते दिन पूरे किया करती है । इस प्रकार की बातें उड़ाना, यो कह करके पतिपत्नी की धूल उड़ा डालना जिसने ग्रहण किया है। वह यदि आटा बाँध कर उनके पीछे पड़ जाय तो क्या आश्चर्य ? उसने तलाश कर करके दो चार ऐसी औरतें'खड़ी कर ली है जो इसके घर की झूठी मोटी बातें गढ़ कर उन पर खूब रंग जमाती है।"हल्दी लगे ना फिटकरी रंग चोखा आवे ।

अ० हिं०----४