पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/६३

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से कहो चाहे कुंए में कुछ न पाने से उसका संदेह दुबला पड़ गया था, इसलिये भीतर जाने में उसे शंका हुई और इसी विचार में उसने कोई बीस मिनट तक चुपचाप खड़ी रहने के सिवाय कुछ ने किया ।

इस अवसर में कांतानाथ बाहर से छाए। वह' शायद रात से ही कहीं गए थे। उन विचारों को मालूम नहीं कि शत्रुओं ने इस तरह उन पर आफत बरसाने का प्रपंच खड़ा किया है। यद्यपि उन्हें आफल की परकाला मथुरा से खटका रहा करता था परंतु उनकी समझ में न आया कि आज उनके मकान में इतनी भीड़ क्यों है ? अस्तु भीड़ तो भीड़ परंतु जब उनकी दृष्टि लाल साफे पर पड़ी तब वह एकदम' के से रह गए। इस घटना को देखकर वह धबड़ाए भी सही, शायद उन्हें उस समय कोई डांट बतलाकर वह बोले--

“हैं हैं ! दीवान जी साहब आज यह क्या चला है ? क्या डाँका पड़ गया ? या कोई खून हुआ है ? आज इस सरगर्मी के साथ ?

“नहीं ! डाँका नहीं पड़ा ! खून बतलाया जाता है। और उसके मुलजिम आप ही गरदाने गए हैं। इस आदमी ( एक को दिखाकर ) ने रिपोर्ट की है कि आपने अपनी जोरू का खून करके उसे कुँए में डाल दिया ।"