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(प्रकरण-५२)
उपकार के बदले उपकार

“भुआ ऐसा भी क्या आदमी जिसने दुःख दे देकर मेरी बेटी का सा डील सुखा डाला !"

“हाँ ! विचारी को न पेट भर खाने को मिलता हैं और न पहनने के अच्छा सा कपड़ा !"

“बेशक ! सूखकर काँटा हो गई। एक एक हड्डी गिन लो ।"

“आदमी नहीं ! भूत है ! जिन्न हैं। राकस है ! पत्थर से भी कठोर !"

"हाँ हाँ ! देखो तो सही गरीब का बदन सूखकर पिंजर निकल आया !"

कार्तिक शुक्ल प्रवोधिनी एकादशी के दिन पंलित जी के मकान पर भगवान के दर्शनों के लिये आनेवाली चार पाँच स्त्रियों ने सुखदा के पास आकर इस तरह उसके साथ सहानुभूति प्रकाशित की । ये औरतें और कोई नहीं, इनकी किसी न किसी प्रकार से दूर की और पास की नातेदार था। उनकी हमदर्दी सच्ची थी अथवा सुखक्षा का मन टटोलने के लिये ही वे आई थीं सो कहने से कुछ लाभ नहीं किंतु पंड़ित काँतानाथ