पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(५८)

की स्त्री ने उनको उत्तर दिया यह यहां उल्लेख कर देने योग्य है। उसने कहा...

“नहीं जी ! मैं दुबली कहाँ हैं? अच्छी खासी, मोटी सुदंडी हूँ। और खाते खाते ही सूख जाऊँ तो किसी का क्या वश ? और जो दुब्ली भी होऊ, मर ही क्यों न जाऊँ तो किसी को क्या ? मैं बुरी हूं तो (आंखें तिरछी करके, इशारा से समझाती हुई और तब लात से मुंह को आंचल की ओर करके) उनकी हामी, चरणों की घोकर--और भली हूं तो उनकी । वाह हजार मारेंगे और एक गिरेंगे । तुम्हें क्या मसलब ? मारें तो वह मेरे मालिक और प्यार करेंगे तो मेरे मालिक ! भगवान् ऐसा मालिक सबको दे !मेरे स्वामी है । मैंने कभी कुसूर किया तो सजा भी पा ली । तुमको तुम्हारे आदमियों ने मारा पीटा, यहां तक कि (एक की ओर इंगित करके) इनके तो जूते मारकर घर से निकाल दिया था तब मैं किसके पास सुख पूछने गई थी जो आज मेरे पास भली बनकर तुम सब थाह लेने आई हो ? तुम भी क्या करो ? सारा कुसूर इस हरामजादी मथुर का है । इसी ने झूठी भूठी बाते बनाकर मुझे बदनाम कर डाला । मैं फिर भी कहती हूं (मथुरा से) तू अपना भला चाहती है तो अभी घर से निकल जा । नहीं तो जो उन्हें खबर हो गई हैं। अभी तेरी गत बना डालेंगे । आदमी हैं। गुस्सा बुरा होता हैं ।"

इनकी बातचीत किवाड़ की ओट ने कांतानाथ सुन्न रहे थे। किसी के कुछ खबर न हो इसलिये उन्होंने चुपचाप