पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/७४

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कलिकाल में भी हम ऐसी ऐसी अनेक घटनाएँ देखा करते हैं तब हमें चाहिए कि हम सजनता का, भलाई का और क्षम्म करने का अनुकरण करे ।"

कांतानाथ की इन बातों ने उन लोगे का हृदय पिघला दिया। चारों ओर से वाह वाही का डंका बजने लगा, शाबाशी की अवाजें आने लगी और धन्यवाद की बैीछारे प्रारंभ हो गई । उनकी दयालुता, उनकी क्षमाशीलता और उनका उदार हृदय देखकर सचमुच ही जो लोग उनकी बदनामी करने में अगुआ थे वे पछताए । उनके मन पर इतना प्रभाव पड़ा कि उन्होंने कांतानाथ के चरणों में सिर रक्खा । “तुम्हारा कुछ दोष नहीं । समय पर ऐसी ऐसी चूक बड़ो बड़ो से ही पड़ती हैं। दोष हमारे नसीब का है। मैं तुम्हारा समस्त अपराध क्षमा करता हूँ । पाप का प्रायश्चित्त पश्चा ताप ही है। इससे बढ़कर कोई नहीं, । तुम अपने अंत:करण से कर रहे है । तथापि यदि हो सके, हो ही सकेगा, तो सवा लक्ष गायत्री का जप करना । इससे बढ़कर कोई प्राय नहीं ।" यह कहकर जब उन दोंनों को बिदा करने लगे तब इनकी पड़ेसिन बुड़िया ने, जो कुँए की आवाज का लंक पीटनेवाली थी, इनके पैरों पड़कर कहा---

“आप चाहे मारे' चाहे निकालें । आपका मुझसे बहुत बड़ा कुसूर हो गया । मैं ही इस झगड़े की जड़ हूँ। मैंने मथुरिया के बहकाने से, उससे एक रुपया पाने के लालच

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