पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/७९

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लिया। और आपके पास इस खबर को पहुंचाना विशेष आवश्यक समझकर इन्होंने मुझे तार दिया। देख लो! तारुन का भेजा हुआ मेरे नाम है।" "हां बेशक! फिर?"

"जिस समय तार मिला, मैं आप ही के नाम पर घर के पते पर चिट्ठी लिखकर लेटरबक्स में डालने जा रहा था । रेल का टाइम निकद देखकर चिट्ठी को जेल में डालता हुए काशी स्टेशन पर पहुँच । टाइमटेबुल में समय का हिंसाब मिलाकर मैने अनुमान कर लिया कि आप इस गाड़ी से आनेवाले हैं अथवा पुरी से चलकर जल्दी से जल्दी इस समय यहाँ पहुँच सकते हैं ।

"अच्छाछा महाराज, आपका बहुत परिश्रम हुआ । आप मुझे उपकार के बोझ से दबा रहे हैं। जब आप पिता हैं तब मैं आपके कहां तक गुण गान कर सकता हूँ ।?" यो कहते हुए फिर प्रियानाथ ने दीनबंधु के पैर पकड़ लिए। चिट्ठी में क्या था सो वह इसे न कहने पाए । गाड़ी रवाना होने की एक दो और तीन घंटियाँ हो गई। आगरे जाने के लिये इस लेागों को यहाँ गाड़ी बदलनी थी । बस चट पद के गाड़ी में सवार हुए और उनके अनुग्रह से दबे हुए उनकी प्रशंसा करते हुए वहाँ से चल दिए। यहाँ यह भी लिख देने की आवश्यकता है कि पंडित पंडितायिन ने एक एक गिन्नी पंडित दीनबंधु को भेट की थी किंतु उन्होंने ली नहीं । "ऐसा कभी नहीं है। सकता ।"