पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(९०)

बिछुड़े हुई । मिलाप डाकर भरत-मिलाय के चित्र की एक झाकी की परछाही देख लीजिए।

अच्छा तो यह लीजिए। अजमेर आ पहुँचा । बस "अजमेर! अजमेर !" की आवाज के साथ जब गाड़ी प्लेट फार्म पर खड़ी हो गई तब इस पार्टी के दूर से भीड़ को चीरकर आती हुई एक जोड़ी दिखाई दी । देखते ही पंडित, पंडितायिन का सूखा हुआ अन्य हरित हो गया, मुरझाई हुई लता लहलहा उठी, सारी चिंताओं में, चिता से भी बढ़कर, विना अग्नि को भस्म कर डालनेवाली चिंता में सम्मिलन के संयोग का अमृत सिंचन होकर वियोग का विषाद जाता रहा । अतिकाल में अपने प्रशिप्रिय बछड़े के देखकर गौमाता के स्तन में से जैसे दूध के झरने झरने लगते हैं, जैसे वह अपने पुत्र को चाटकर अपने अंत:करण की तपन बुझाने के लिये हुंकार करती हुई उसकी ओर दौड़ी जाती है उसी तरह आगत जोड़ी के दर्शन होते ही प्रेमाबु की अश्रुधारा से उनका संतप्त हृदय ठंढा करने के लिये, शुभाशिप की अमृतधारा से उनको गद्गगद करते हुए स्वयं प्रेमविह्वल हो जाने के लिये अपने असबाब को भूलकर, अपने साथियों को भूलकर, अपना देहाभिमान भूलकर, पंडित दंपती दौड़े हुए गए । यह सत्य है कि संयोग की मिठास उसी समय बोध होती है जब बियोगजनित विषाद का कडु,बापने चखते चखते वह एकाएक प्राप्त हो । यदि संसार में वियाग के विषाद की अग्नि से नर नारी न तपाए