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आनन्द मठ


अनन्तर उन्होंने कहा-"कृष्णमें तुम्हारी गहरी भक्ति है या नहीं?

शिष्यने कहा-“सो कैसे कहूं? मैं जिसे भक्ति समझता हूं, वह या तो दुनियांकी आंखोंमें धूल झोंकना है या अपनी आत्माके साथ धोखा करना है।"

सत्यानन्दने सन्तुष्ट होकर कहा-"ठीक कहते हो, जिससे भक्ति दिन दिन गहरी हो; वही काम करना। मैं आशीर्वाद करता हूं कि तुम्हारा प्रयास सफल होगा, क्योंकि तुम्हारी उमर अभी बहुत थोड़ी है। अच्छा, बेटा! मैं तुम्हें क्या कहकर पुकारा करूं? मैं तो यह बात पूछना ही भूल गया था।"

नूतन सन्तानने कहा,-"आपकी जो इच्छा हो वही कहकर पुकारें। मैं तो वैष्णवोंका दासानुदास हूं।"

सत्या०-"तुम्हारी यह नवीन अवस्था देखकर तो तुम्हें नवीनानन्द ही कहकर पुकारनेकी इच्छा होती है। बस आजसे तुम्हारा यही नाम हुआ। पर एक बात तो बतलाओ तुम्हारा पहला नाम क्या था? यदि कहने में कोई बाधा हो, तोभी कह देना। मुझसे कह दोगे, तो निश्चय जान रखो, कि कोई तीसरा यह न जानने पायेगा। सन्तानधर्मका मर्म यही है कि जो न कहने योग्य हो, वह बात भी गुरुसे कह देनी चाहिये। देनेसे कोई क्षति नहीं होती।"

शिष्य-"मेरा नाम शान्तिराम देव शर्मा है।"

"नहीं, तेरा नाम शान्तिर्माण पापिष्ठा है।"यह कहकर सत्यानन्दने अपने शिष्यकी काली और डेढ़ हाथ लम्बी दाढ़ी बायें हाथसे पकड़कर खींची। बस, नकली दाढ़ी झटसे अलग हो गयी। सत्यानन्दने कहा-“जा, बेटी! तू मेरे हो साथ धोखा-धड़ी करने आयी थी? यदि छकाने ही चली थी, तो फिर तूने यह डेढ़ हाथ लम्बी दाढ़ी क्यों लगायी। दाढ़ी अगर ठीक बैठ भी जाती, तो यह कोमल कण्ठस्वर और यह चितवन कैसे छिपा