पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१२२

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चौथा परिच्छेद

भवा०-"तुम भाभीजी ठहरी ?"

गौरी--"आदरसे जो चाहो कह लो, नहीं तो तुम ठहरे गुसाई बाबा-लाक्षात् देवता! खैर, जब प्रणाम किया ही तो मैं भी असीस देती है कि जियो जागो। हां, प्रणाम कर भी सकते हो; क्योंकि उमरमें मैं तुमसे बड़ी हूं।"

इस समय गौरीदेवीकी उमर भवानन्दसे २५ वर्ष अधिक होगी, परन्तु सुचतुर भवानन्दने कहा, "यह क्या भाभी! तुम यह क्या कहती हो? तुम्हे रसीली छबीली देखकर ही भाभी कहकर पुकारता हूं। नहीं तो तुम्हें याद है या नहीं, उस बार हिसाब लगाकर देखा गया था, तो तुम मुझसे छः वर्ष छोटी निकली थी? हम वैष्णवोंमें तो जानती ही हो कि हर तरहके लोग हैं। इसीलिये मेरी इच्छा होती है कि मटके ब्रह्मवारीजीकी आज्ञा लेकर तुम्हारे साथ सगाई कर लूं। यही कहने के लिये मैं तुम्हारे पास आया हूं।"

गौरी-"छिः! यह भी कोई बात है? मैं ठहरी विधवा-”

भवा०"--तो क्या विधवाकी सगाई नहीं होती?"

गौरी-“अरे भाई! जाओ, जो मनमें आवे, करो। तुम लोग पंडित टहरे। हम औरतें यह क्या जाने? खैर, कब सगाई होगी?"

भवानन्दने बड़ी मुश्किलसे अपनी हंसी रोककर कहा, "बस एक बार उस ब्रह्मचारीसे मिलने भर की देर है। अच्छा, यह तो कहो वह कैसी है?"

गौरी उदास हो गयी। उसने मनही मन सोचा कि मालूम होता है, सगाईकी बात यह योंही दिल्लगीके तौरपर कह रहा था! बोली,-"कैसी क्या? जैसी थी, वैसी है।"

भवा०-"तुम एक बार जाकर उसको देखो, कि कैसी है। उससे कहना कि मैं उससे मिलने आया हूं।" यह सुन, गौरी देवी हाथकी कलछी जमीनपर रख; हाथ धो, लम्बो लम्बी डग भरती दोतल्ले पर जानेके लिये सीढ़ियां