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आनन्द मठ


चढ़ने लगीं। ऊपर एक कमरेमें एक फटी चटाईपर एक अपूर्व सुन्दरी बैठी थी पर उसके सौन्दर्यपर भीषण छाया पड़ी थी। मध्याह्न कालमें, कूल परिप्लाविनी, प्रसन्न-सलिला, विपुल-जल-कल्लोलिनी, स्रोतस्वतीके ऊपर जैसी घने बादलों की छाया पड़ जाती है, वैसी ही छाया पड़ी हुई थी। नदीमें तर उठ रही थीं, तीरपर कुसुमित वृक्ष हवाके झोंकेसे हिल रहे थे, कोई कोई फूलोंके भारले झुक रहे थे, अट्टालिकाओंकी श्रेणी भी अपनी शोभा दिखा रही थी, डांडोंकी चोटसे नदीका जल चञ्चल हो रहा था, दोपहरका सुहावना समय था; पर उस काली छायामें सारी शोभा-क्षीण थी। उस सुन्दरीकी भी वही दशा थी। पहलेकेसे सुन्दर चिकने और चञ्चल केश, पहलेके ही तरह प्रशान्त और उन्नत ललाटपर किसीको निराली लेखनीसे अङ्कित भौ है, पहलेकीसी बड़ी साश्रु और काली पुतलियोंवाली आंखें-लभी हैं, पर न तो उनमें पहलेकी भांति कटाक्ष है, न चंञ्चलता है, पर कुछ कुछ नम्रता है। अधरोंपर वही पहलेकीसी ललाई है; हृदय उसी तरह भावपूर्ण है, बांहें वैसी ही वनलताकी कोमलताको भी मात करनेवाली हैं, पर आज न तो वह कान्ति है, न ज्योति, न चंञ्चलता और न रस, अधिक क्या वह यौवन हो अब न रहा, केवल सौन्दर्य और माधुये। उसमें और दो नयी बातें आ गयी है धीरता और गंम्भीरता। पहले इन्हें देखने से मालूम होता था कि यह मनुष्य लोककी अनुपम सुन्दरी हैं; पर आज देखनेसे मालूम होता है कि यह देवलोककी कोई शापग्रस्ता देवी है। चारों ओर भोजपत्रपर लिखी हुई पोथियाँ फैली हुई हैं; दीवारमें खूटीपर सुमिरनी माला लटक रही है और जगह जगहपर जगन्नाथ, बलराम, सुभद्राका पट लगा है, कहीं कालियदमन, नव-नारी कुञ्जर, वस्त्रहरण, गोवर्द्धनधारण आदि ब्रजलीलाओंके चित्र अंकित हैं। चित्रोंके नीचे लिखा है,- “चित्र हैं हा विचित्र?” भवानन्दने उसी घरमें प्रवेश किया।